एस.के. सिंह, नई दिल्ली। भारतीय टेक स्टार्टअप में 2023 में जनवरी से मार्च तक 2.88 अरब डॉलर की फंडिंग हुई है, जबकि जनवरी-मार्च 2022 में 11.9 अरब डॉलर की फंडिंग हुई थी। यानी इसमें 75% की गिरावट आई है। लेकिन यह स्थिति सिर्फ भारतीय स्टार्टअप के सामने नहीं, बल्कि यह ग्लोबल समस्या है। स्टार्टअप फंडिंग पर नजर रखने वाली फर्म ट्रैक्सन (Tracxn) टेक्नोलॉजीज की तरफ से जागरण प्राइम को दी एक्सक्लूसिव जानकारी के अनुसार 2021 में भारतीय टेक स्टार्टअप में 43.7 अरब डॉलर का निवेश हुआ था, जो 2022 में घटकर 27 अरब डॉलर रह गया। चीन में यह 59 अरब डॉलर से घटकर 23.3 अरब डॉलर और अमेरिका में 298.2 अरब डॉलर से 184.6 अरब डॉलर पर आ गया। ये आंकड़े बताते हैं कि हाल के महीनों में टेक्नोलॉजी स्टार्टअप ईकोसिस्टम कितनी तेजी से बदला है। उनके लिए फंड जुटाना लगातार मुश्किल होता जा रहा है। पिछले साल जून तक हालात बेहतर थे, मुश्किलें उसके बाद बढ़ी हैं।

चंद महीनों में आखिर ऐसा क्या हुआ कि दो साल पहले जिन प्राइवेट इक्विटी और वेंचर कैपिटल फंडों में टेक सेक्टर में निवेश करने की होड़ लगी थी, वे अब फूंक-फूंक कर कदम रख रहे हैं। यह समझने के लिए जागरण प्राइम ने देश के कई प्रमुख एक्सेलरेटर और फैमिली फंड के साथ स्टार्टअप संस्थापकों से भी बात की। किसी स्टार्टअप के आगे बढ़ने के लिए जरूरी है कि उसे फंड मिलता रहे। इसलिए हमने विशेषज्ञों से यह भी जाना कि अच्छे स्टार्टअप को मौजूदा माहौल में फंड जुटाने के लिए किन बातों का ध्यान रखना चाहिए।

सस्ता कर्ज बना संकट का आधार

विशेषज्ञ मौजूदा हालात को गुब्बारा फूटने जैसा मानते हैं। वैसे तो यह गुब्बारा कोविड-19 महामारी से पहले बनने लगा था, लेकिन यह पूरी तरह बना 2021 में। इनफाइनाइट एनालिटिक्स के संस्थापक और सीईओ आकाश भाटिया जागरण प्राइम से कहते हैं, “अमेरिका में ब्याज दरें ऐतिहासिक रूप से निचले स्तर पर थीं। महामारी के दौरान फेडरल रिजर्व ने मनी प्रिंट किया और अनाप-शनाप पैसा दिया। लोगों यह मान कर बैठे थे कि ब्याज दरें कभी नहीं बढ़ेंगी। इसलिए बैंकों और ट्रेजरी बिल में निवेश कम हो रहा था। ज्यादातर पैसा प्राइवेट इक्विटी और वेंचर कैपिटल तथा इस तरह के अन्य इंस्ट्रूमेंट में आया। पैसा अधिक आने से गुब्बारा बनने लगा। इसलिए साल भर पहले तक पैसा जुटाना काफी आसान था।”

मुंबई-दिल्ली समेत देश के कई शहरों में को-वर्किंग बिजनेस में संलग्न और स्टार्टअप एक्सेलरेटर डेवएक्स (DevX) के सह-संस्थापक उमेश उत्तमचंदानी के अनुसार फंड की उपलब्धता तो कम हुई है, लेकिन लोग जितना फंड जुटा रहे हैं उसकी तुलना में उपलब्धता अधिक है। वे बताते हैं, “अल्टरनेटिव इन्वेस्टमेंट फंड (AIF) और अन्य का दावा है कि अभी उनके पास स्टार्टअप में निवेश के लिए 18 अरब डॉलर उपलब्ध हैं। इसमें सीड फंडिंग से लेकर सीरीज और आईपीओ से पहले तक का निवेश शामिल है। 2020 में यह फंड 40-45 अरब डॉलर का था।”

वे कहते हैं, “2020 और 2021 में सबसे ज्यादा फंडिंग टेक स्टार्टअप को ही मिली थी। उस समय ब्याज दरें कम होने से पूंजी की लागत बहुत कम थी और उपलब्धता भी बहुत थी। यह मान कर कि डिजिटल में सब सही हो रहा है, लोग जहां-तहां पैसा लगा रहे थे। वही टेक्नोलॉजी सेक्टर अब मुंह के बल गिरा है। निवेशकों का नजरिया बदला है।” डेवएक्स ने हाल ही वेंचर फंडिंग में भी कदम रखा है।

तब निवेशकों में प्रतिस्पर्धा थी

स्टार्टअप एक्सेलरेटर उपेक्खा के पार्टनर और सह-संस्थापक शेखर नायर कहते हैं, “अमेरिका में 2021 के अंत तक ब्याज दरें शून्य के आसपास थीं तो निवेशकों को वेंचर फंड में या सीधे स्टार्टअप में निवेश के लिए ज्यादा सोचना नहीं पड़ता था। टेक इंडस्ट्री बूम पर थी और लोग अवास्तविक वैलुएशन पर स्टार्टअप में पैसा लगा रहे थे। वे यह भी नहीं देखते थे कि बिजनेस में मुनाफा होगा या नहीं। पीछे छूट जाने के डर से निवेशकों में प्रतिस्पर्धा थी। इसलिए बहुत कम ड्यू-डिलिजेंस के साथ ऊंची वैलुएशन पर निवेश के सौदे हो रहे थे।”

नायर के अनुसार, कोविड-19 महामारी ने टेक स्टार्टअप की ग्रोथ तो तेज कर दी, लेकिन इसने ओवरऑल आर्थिक वातावरण को कमजोर किया। ग्लोबल सप्लाई चेन बिगड़ने से अनेक वस्तुओं की कमी होने लगी और महंगाई रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई। यही नहीं, महामारी का असर कम होने के साथ नकदी का इस्तेमाल भी बढ़ने लगा। 2022 में ब्याज दरें बढ़ने लगीं तो निवेशक भी सचेत हुए। वे इस बात को लेकर अनिश्चित थे कि ब्याज दरें कितनी बढ़ेंगी और महंगाई पर कब तक नियंत्रण लगेगा। टेक्नोलॉजी कंपनियों की वैलुएशन 50% से 70% तक गिर गई। पिछले राउंड की तुलना में वैलुएशन कम हो जाने के कारण अनेक स्टार्टअप और निवेशक तय नहीं कर पा रहे थे कि अगली फंडिंग वे कैसे जुटाएंं। यही कारण है कि 2022 के मध्य तक फंड हासिल करना आसान था और उसके बाद परिस्थितियां कठिन होने लगीं।

महंगाई और ब्याज दर का प्रभाव

इनफाइनाइट एनालिटिक्स के भाटिया कहते हैं, “महंगाई रिकॉर्ड स्तर पर पहुंचने के बाद ब्याज दरें बढ़ने लगीं। भू राजनीतिक परिस्थितियां भी बदलीं। इससे पैसे का प्रवाह कम हो गया। रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू हुआ तो पैसे का कुछ प्रवाह युद्ध की ओर हो गया। फेडरल रिजर्व ने बहुत तेजी से ब्याज दरें बढ़ाईं जिससे सिस्टम को तगड़ा झटका लगा। सिलिकॉन वैली बैंक का डूबना इसी का नतीजा है।”

“पहले स्टार्टअप बिना किसी वास्तविक प्रोडक्ट के सिर्फ आइडिया पर पैसे जुटा रहे थे। मनी सप्लाई कम हुई तो ऐसा करना मुश्किल हो गया। वेंचर कैपिटल में पैसा लगाने वाले लिमिटेड पार्टनर्स ने भी हाथ खींच लिए। स्टार्टअप ही नहीं बल्कि वेंचर कैपिटल फंड के लिए भी पैसा जुटाना मुश्किल हो गया है।” वे कहते हैं, मैं अमेरिका में ऐसे कई वेंचर कैपिटल फंड को जानता हूं जो अपने लिमिटेड पार्टनर से पैसा जुटाने में नाकाम रहे हैं। इसका एक बड़ा कारण यह है कि लिमिटेड पार्टनर्स के सामने ज्यादा रिटर्न देने वाले अन्य इंस्ट्रूमेंट उपलब्ध हैं। मौजूदा माहौल में स्टार्टअप में निवेश करना उन्हें काफी जोखिम वाला लग रहा है।

उपेक्खा के नायर कहते हैं, महामारी के समय सरकारों ने फंड की लागत घटाने के साथ कंपनी और व्यक्तिगत टैक्स में भी कटौती की। ब्याज दर कम होने के कारण कर्ज लेना और खर्च करना आसान था। इस तरह मनी सप्लाई बढ़ी तो महंगाई भी बढ़ने लगी। इससे टेक इंडस्ट्री में बबल बना। सिर्फ चार तिमाही में ब्याज दर शून्य से 4.75% हो गईं तो उसका गहरा असर हुआ और कमजोर कड़ियां सामने आने लगीं। पूंजी की लागत बढ़ने का मतलब है इसकी उपलब्धता कम होना। इसका परिणाम कर्मचारियों की छंटनी, कंपनी की वैलुएशन में गिरावट तथा मुनाफे वाली ग्रोथ पर फोकस के रूप में सामने आया। सिलिकॉन वैली बैंक का डूबना तथा अन्य कई वित्तीय संस्थानों का संकट में आना ब्याज दर में तेज बढ़ोतरी और एसेट वैलुएशन में बड़ी गिरावट का ही नतीजा है।

निराशाजनक प्रदर्शन भी है कारण

स्टार्टअप को कानूनी सलाह देने वाली फर्म लीगलविज.इन के संस्थापक शृजय शेठ के अनुसार, “सॉफ्टबैंक विजन फंड, सिकोया, टाइगर ग्लोबल जैसे बड़े ग्लोबल निवेशकों के पोर्टफोलियो में बीते एक साल में काफी करेक्शन आया है। अनेक कंपनियों ने वैसा प्रदर्शन नहीं दिखाया जैसी उनसे निवेशकों को उम्मीद थी। 2020-21 में स्टार्टअप मेनस्ट्रीम में आने लगे थे, स्टॉक एक्सचेंज पर उनकी लिस्टिंग होने लगी। लेकिन पेटीएम और जोमैटो जैसी कंपनियां अपनी वैलुएशन को सही साबित करने में नाकाम रहीं। अनेक कंपनियां अभी तक घाटे में चल रही हैं।”

पेटीएम ने आईपीओ में प्राइस रेंज 2,080-2,150 रुपये रखा था। लेकिन इसकी लिस्टिंग 1,955 रुपये में हुई और इस समय इसके शेयर भाव 650 रुपये के आसपास हैं। इसी तरह जोमैटो के आईपीओ में शेयर की वैल्यू 72 से 76 रुपये थी। उसकी लिस्टिंग तो 125.85 रुपये में हुई लेकिन शेयर अब 52 रुपये के पास हैं। पेटीएम को 2021-22 में 2,325 करोड़ रुपये का घाटा हुआ। वर्ष 2022-23 की पहली तीन तिमाही में भी इसे 1,652.5 करोड़ रुपये का घाटा हुआ है। जोमैटो को 2021-22 में 1,098 करोड़ का घाटा हुआ था। पिछले साल जून तिमाही में 138 करोड़ घाटे के बाद यह सितंबर तिमाही में 11.70 करोड़ और दिसंबर तिमाही में 61.60 करोड़ का मुनाफा कमाने में जरूर कामयाब रही है।

शेठ कहते हैं, इन जैसी बड़ी स्टार्टअप कंपनियों का रेवेन्यू भले बढ़ा हो, लेकिन यूनिट इकोनॉमिक्स उतना मजबूत नहीं दिखता है। इसलिए वैलुएशन को लेकर निवेशक काफी सचेत हो गए हैं। फंडिंग के लिहाज से मुझे पूरा वित्त वर्ष मुश्किल भरा दिख रहा है।

निवेशकों के पास अन्य विकल्प

शेठ के अनुसार, बीते साल भर में रेपो रेट काफी बढ़ गया है। निवेशक जितने रिटर्न की उम्मीद कर रहे हैं, उसकी तुलना में फंड की लागत काफी बढ़ गई है। निवेशक भी सोचते हैं कि स्टार्टअप जैसे जोखिम भरे एसेट में पैसा क्यों लगाएं जब दूसरी जगह ज्यादा ब्याज मिल रहा है और वह निवेश पूरी तरह सुरक्षित भी है। निवेशक बाजार स्थिर होने का इंतजार कर रहे हैं। तब तक वे सरकारी बांड या बैंक एफडी में जैसे बेहद कम जोखिम वाले इंस्ट्रूमेंट में पैसा लगाना चाहेंगे। अच्छी कंपनियां भी अपने बांड पर बढ़िया रिटर्न दे रही हैं।

उत्तमचंदानी के मुताबिक, “अमेरिका और यूरोप में कोविड-19 के समय जो सस्ता फंड जारी किया गया उसकी वजह से काफी पैसा स्टार्टअप में आया। उस पैसे की लागत शून्य के करीब, इसलिए निवेशक ज्यादा जोखिम लेने की स्थिति में थे। फंड देखा-देखी भी स्टार्टअप में पैसा लगा रहे थे, क्योंकि उनपर उनके निवेशकों का दबाव रहता था।”

जोखिम बढ़ा, नया आइडिया भी नहीं

हार्टी मार्ट (Hearty Mart) सुपरमार्केट के संस्थापक और स्टार्टअप मेंटर नदीम जाफरी कहते हैं, पहले लहर जैसी स्थिति थी, हर कोई यूनिकॉर्न बनना बनाना चाहता था। उन्हें पैसा देने के लिए फंड भी काफी उपलब्ध था। लेकिन स्टार्टअप की सफलता की दर 20% से भी कम है। यानी अगर सिकोया या विजन फंड किसी स्टार्टअप में पैसा लगाते हैं तो उसके सफल होने की संभावना 20% से भी कम होती है। जब इकोनॉमी अच्छा प्रदर्शन कर रही थी, तब निवेशक यह जोखिम लेने के लिए तैयार थे, लेकिन अभी नहीं।

जाफरी के अनुसार, यह भी सच है कि स्टार्टअप्स की तरफ से कोई बड़ा ‘किलर आइडिया’ नहीं आ रहा है। मान लीजिए आज यूपीआई पर आधारित पेमेंट का कोई नया स्टार्टअप आता है, तो उस बिजनेस में पहले से कई कंपनियां मौजूद हैंं। कोई ‘मी टू’ आइडिया लेकर आए, उसमें एक-दो फीचर जोड़ दे, तो मुझे नहीं लगता कि कोई उसमें निवेश में रुचि दिखाएगा। आइडिया ऐसा यूनिक हो जो अंतर लेकर आए, तभी लोग निवेश करेंगे। वे भी अभी ज्यादा वैलुएशन पर निवेश करने के लिए तैयार नहीं होंगे।

लीगलविज.इन के शेठ कुछ और कारण बताते हैं, “बीते दो-तीन वर्षों के दौरान स्टार्टअप ईकोसिस्टम में भीड़ काफी बढ़ी है। बड़ी एजुटेक कंपनियों ने काफी महंगे अधिग्रहण किए। अब उन्हें अपनी इकोनॉमी तो देखनी ही है, अधिग्रहीत कंपनियों का बोझ भी उन पर आ गया है। स्टार्टअप संस्थापकों को लेकर कंप्लायंस से संबंधित शिकायतें भी सामने आई हैं। भारत पे का विवाद जगजाहिर है।”

कम फंडिंग से घटी वैलुएशन

फंडिंग घटने का सीधा असर स्टार्टअप की वैलुएशन पर पड़ा है। आकाश भाटिया के अनुसार, 2021 में वैलुएशन रेवेन्यू के 50 गुना और यहां तक कि 100 गुना तक आंकी जा रही थी। अब यह रियलिस्टिक स्तर पर आ गया है। यह सबके लिए अच्छा है। बेहतर स्टार्टअप को लगातार फंड की जरूरत पड़ती है। जब कोई स्टार्टअप एक राउंड में पैसे जुटाता है तो वह अगले राउंड के लिए वैल्यू भी तय करता है। अगर किसी ने 100 गुना वैलुएशन पर फंड जुटाया है तो उसके लिए आगे उससे अधिक वैल्यू पर फंड जुटाना मुश्किल हो जाएगा, या फिर उसे कम वैल्यू के लिए तैयार रहना पड़ेगा।

शेठ कहते हैं, “बाजार हमेशा संतुलन बनाने की कोशिश करता है। एक समय वैलुएशन आसमान छूने लगी थी, अब वह वास्तविकता के करीब आ रही है। निवेशकों को लगने लगा है कि बाजार में जब इतनी कीमत ही नहीं नहीं है तो इतना प्रीमियम क्यों दिया जाए।”

भाटिया कहते हैं, “इसे इस लिहाज से देखा जाना चाहिए कि अब यह वास्तविकता के करीब है। अच्छे प्रोडक्ट और रेवेन्यू वाले स्टार्टअप को आगे भी अच्छी वैल्यूएशन मिलेगी, लेकिन वह 2021 के पागलपन के दौर जैसी नहीं होगी।”

उपेक्खा के नायर के अनुसार, “आमतौर पर पब्लिक मार्केट (स्टॉक एक्सचेंज) में वैलुएशन से प्राइवेट स्टार्टअप की वैलुएशन का अंदाजा लगाया जाता है। पब्लिक मार्केट में वैलुएशन में जितनी गिरावट आएगी, प्राइवेट मार्केट में भी उसका असर उतना अधिक होगा। निवेशकों के लिए यह बड़ी सामान्य बात है कि जब पब्लिक मार्केट में कोई एसेट उन्हें कम वैलुएशन पर मिल रही है तो वे अपना पैसा प्राइवेट मार्केट से डायवर्ट कर वहां लगाएंगे। इसका सीधा मतलब है कि प्राइवेट डील में प्रतिस्पर्धा कम होगी, वहां वैलुएशन कम हो जाएगी तथा पूंजी निवेश भी कम होगा।”

उत्तमचंदानी एक और समस्या का जिक्र करते हैं, “मल्टीप्लायर गिरने पर संस्थापक के लिए पुराने निवेशकों को समझाना बड़ा मुश्किल होता है। किसी ने पिछले राउंड में अधिक वैलुएशन पर फंड जुटाया और अब नया फंड कम वैलुएशन पर जुटाता है तो पुराना निवेशक क्यों मानेगा। लेकिन यह स्थिति ज्यादातर स्टार्टअप के सामने आने वाली है। पुराने निवेशकों को भी इस बात को स्वीकार करना पड़ेगा। ऐसा न करने पर हो सकता है स्टार्टअप की वैलुएशन भविष्य में और गिर जाए। इसलिए बेहतर होगा कि वे मौजूदा स्थिति को समझें और बेहतर भविष्य की उम्मीद रखते हुए नई वैलुएशन को स्वीकार करें।”

हालांकि दूसरी तरफ स्टार्टअप संस्थापक अब भी ज्यादा वैलुएशन चाहते हैं। उत्तमचंदानी बताते हैं, बीते डेढ़ साल में हमारे पास करीब 600 स्टार्टअप ने फंडिंग के लिए आवेदन किया। हमारी टीम छोटी है, उन्हें इतने लोगों का आकलन करने में तीन साल लगते। लेकिन हमने शुरुआती 5 पैरामीटर के आधार पर ही देखा कि संस्थापक काफी ज्यादा वैलुएशन चाह रहे थे और हमें उन्हें रिजेक्ट करना पड़ा। हमने 600 में से आठ को ही फंडिंग के लिए चुना। कुछ संस्थापकों ने बाद में कहा भी कि आपने भले हमें खारिज कर दिया लेकिन हमें कहीं और से फंडिंग मिल गई है, लेकिन हम अपनी बात पर कायम रहे, क्योंकि हमें लगता था कि करेक्शन देर-सबेर होना ही है। हालांकि उत्तमचंदानी का मानना है कि जो संस्थापक अब भी दो साल पुरानी स्थिति के अनुसार वैलुएशन मानकर चल रहे हैं, वे जल्दी ही मौजूदा स्थिति को स्वीकार कर लेंगे।

कैश बर्न की जगह यूनिट इकोनॉमिक्स

इस माहौल में स्टार्टअप ईकोसिस्टम में और भी बदलाव आए हैं। शेठ कहते हैं, मितव्ययिता की नीति वापस आ गई है। बिजनेस में कुछ समय पहले तक कैश बर्न (ज्यादा पैसे खर्च करके कम समय में अधिक से अधिक बिजनेस का विस्तार) का माहौल था। अब माइंडसेट बदल रहा है। निवेशक सोच रहे हैं कि कैश बर्न इतना भी न हो कि कुछ समय बाद बिजनेस तो काफी बढ़ जाए, लेकिन तब फंडिंग मिलना मुश्किल हो। स्टार्टअप भी इस हकीकत को समझने लगे हैं कि उन्हें भले ही थोड़ी धीमी गति से ग्रोथ मिले, लेकिन वह ग्रोथ सस्टेनेबल होनी चाहिए। यूनिट इकोनॉमिक्स कम से कम इतनी हो कि वह अगले डेढ़-दो साल तक बिजनेस में बने रह सकें।

हार्टी मार्ट के जाफरी के मुताबिक, “कैश बर्न खत्म तो नहीं होगा, लेकिन इसका अनुपात जरूर कम हो जाएगा। फंड की लागत बढ़ने के कारण लोगों के पास कैश की उपलब्धता भी कम हो रही है। फिर भी अगर आइडिया बहुत अच्छा है तो कैश बर्निंग तो होगी, लोग उसे स्वीकार करेंगे, क्योंकि उसके बिना स्टार्टअप आगे नहीं बढ़ पाएगा।”

उत्तमचंदानी एक महत्वपूर्ण बात कहते हैं, “कैश बर्न ऐसा न हो कि स्टार्टअप कभी मुनाफे में ही न आए। किसी स्टार्टअप को तेजी से बढ़ने के लिए कैश बर्न तो करना ही पड़ेगा लेकिन यह प्रोडक्ट लेवल पर नहीं होना चाहिए। मान लीजिए मैं पानी की बोतल बेच रहा हूं। एक बोतल पर मुझे 10 रुपये की लागत आती है तो मैं उसे 8 रुपये में नहीं बेच सकता, उसे मुझे 12 रुपये में ही बेचना पड़ेगा। यानी प्रोडक्ट के स्तर पर कैश बर्न नहीं होना चाहिए। उस पर मुझे जो 2 रुपये मिल रहे हैं, वह ऑर्गेनाइजेशन के बाकी खर्च के लिए पर्याप्त नहीं होगा। इसलिए वहां कैश बर्न स्वीकार्य है।” वे कहते हैं, 10 रुपये की चीज 8 रुपये में बेचने की नीति पहले भी स्वीकार्य नहीं होनी चाहिए थी, अब तो वह बिल्कुल बंद हो गई है।

निवेशकों के लिए महत्वपूर्ण मेट्रिक्स

लीगलविज के शेठ कहते हैं, “निवेशक अब यूनिट इकोनॉमिक्स पर काफी ध्यान दे रहे हैं। डेढ़ रुपये का सामान एक रुपये में बेचने का मॉडल अब उतना सस्टेनेबल नहीं रह गया जितना दो साल पहले था। तब सोच यह थी कि जितनी जल्दी हो सके बड़ा से बड़ा कस्टमर बेस हासिल किया जाए, कमाई तो बाद में हो ही जाएगी। अब निवेशक कंपनी का कैश फ्लो स्टेटमेंट देखना चाहते हैं कि वह रीजनेबल है या नहीं, ग्राहक के स्तर पर ब्रेकइवन है या नहीं, अगर कंपनी पैसा खर्च करके नए ग्राहक बनाती है तो उसे रिपीट बिजनेस मिलेगा या नहीं, ग्राहक दोबारा आएगा या नहीं। कस्टमर रिटेंशन रेट, प्रति कस्टमर औसत रेवेन्यू, कस्टमर एक्विजिशन कॉस्ट जैसे मैट्रिक्स अब बहुत महत्वपूर्ण हो गए हैं।”

क्या कैश बर्न का जमाना लद गया, यह पूछने पर उपेक्खा के नायर कहते हैं, “कुछ भी हमेशा के लिए खत्म नहीं होता, चक्र चलता है। ब्याज दरें निकट भविष्य में फिर से शून्य के आसपास जाने की संभावना नहीं है, इसलिए आने वाले दिनों में पूंजी की लागत ऊंची बनी रहेगी। अधिक कैश बर्न वाले स्टार्टअप की तुलना में पूंजी सक्षम स्टार्टअप को कम समस्याएं झेलनी पड़ेंगी। भारत के एसएएएस (SaaS) स्टार्टअप मूलतः पूंजी सक्षम हैं और यह बड़ी अच्छी खबर है।”

स्टार्टअप ईकोसिस्टम का फोकस इस समय सस्टेनेबल बिजनेस मॉडल खड़ा करने पर है जो पॉजिटिव कैश फ्लो ला सके तथा यूनिट स्तर पर मुनाफा दे सके। यानी कंपनियां अपनी रेवेन्यू स्ट्रीम तथा ग्राहक हासिल करने की लागत पर बारीक नजर रख रही हैं ताकि यूनिट इकोनॉमिक्स बेहतर हो और मुनाफा हो सके।

नायर के मुताबिक उपेक्खा स्टार्टअप संस्थापकों को अपने वैल्यू SaaS मंत्र के जरिए पूंजी का बेहतर इस्तेमाल करने पर जोर देती रही है। शुरुआती चरण के संस्थापकों को हमारी सलाह सही समय पर सही रकम जुटाने, कैश बर्न कम करने तथा पॉजिटिव यूनिट इकोनॉमिक्स की रही है। ऐसा करके स्टार्टअप ऐसा टिकाऊ बिजनेस मॉडल खड़ा कर सकते हैं जिसमें पॉजिटिव कैश फ्लो के साथ मुनाफा हो।

नए बबल की शुरुआत!

इनफाइनाइट एनालिटिक्स के भाटिया एक नई समस्या का जिक्र करते हुए कहते हैं, “अब एक नया बबल बन रहा है। यह है Generative AI (ऐसी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस टेक्नोलॉजी जो टेक्स्ट, इमेज, ऑडियो और सिंथेटिक डाटा समेत विभिन्न तरह के कंटेंट प्रोड्यूस कर सकती है)। दो साल पहले जो क्रिप्टो था वह अब जेनरेटिव एआई बन गया है। स्टार्टअप चैट-जीपीटी तथा इस तरह के अन्य प्रोडक्ट पर एक मुलम्मा चढ़ा कर खुद को जेनरेटिव एआई स्टार्टअप बता रहे हैं। वे और कुछ नहीं कर रहे, किसी पुराने प्रोडक्ट (दूसरी कंपनी की बौद्धिक संपदा) पर नया रैपर लगा रहे हैं। कोई बेवकूफ ही ऐसे स्टार्टअप में पैसा लगाएगा।” लेकिन अगर किसी स्टार्टअप के पास अपना इनोवेटिव प्रोडक्ट है और वह जेनरेटिव एआई का इस्तेमाल उसकी बेहतरी में करता है, तो निवेशक उसमें पैसा लगा सकते हैं। इसलिए हम कह सकते हैं कि कैश बर्न का युग खत्म नहीं हुआ, इसने अपना रूप बदला है।

अच्छे स्टार्टअप क्या करें

भाटिया कहते हैं, “रेवेन्यू! रेवेन्यू के जरिए किसी स्टार्टअप की फंडिंग से बेहतर कुछ नहीं हो सकता। पिछले कुछ वर्षों के दौरान मेरी कंपनी में कैश का मुख्य स्रोत क्लाइंट और उनसे मिलने वाला रेवेन्यू ही रहा है। अगर आप वेंचर कैपिटल के बिना बिजनेस करने में सक्षम हैं तो वेंचर कैपिटल फंड खुद आपके बिजनेस में पैसा लगाना चाहेंगे। स्टार्टअप्स को इस बुनियादी बात का ख्याल रखना चाहिए।”

शेठ के अनुसार, “अब सिर्फ आइडिया काफी नहीं, यह भी देखा जा रहा है कि आइडिया आर्थिक रूप से कितना व्यवहार्य है। आज भले न सही, कुछ महीने बाद उस आइडिया में फाइनेंशियल भविष्य दिख रहा है या नहीं। निवेशक ऐसे स्टार्टअप में ही पैसा लगाना चाहेंगे। स्टार्टअप संस्थापकों को वैलुएशन की उम्मीद भी वाजिब रखनी चाहिए। उन्हें इस हकीकत को स्वीकार करना चाहिए कि दो साल पहले जैसी स्थिति अब नहीं है। उसी हिसाब से उन्हें योजना बनानी चाहिए।”

नायर का सुझाव है, “स्टार्टअप संस्थापकों को ‘किसी भी कीमत पर ग्रोथ’ की नीति छोड़कर अपने बिजनेस में पूंजी के बेहतर इस्तेमाल पर ध्यान देना चाहिए, उपलब्ध फंड की मदद से मुनाफा कमाने पर ध्यान देना चाहिए और फंड जुटाने की प्रक्रिया को जितना हो सके, अभी टालना चाहिए।”

नायर के अनुसार, “अतिरिक्त रेवेन्यू स्ट्रीम तथा ग्राहकों को अधिक वैल्यू देने के लिए स्टार्टअप संस्थापकों को अधिक साझेदारी करनी चाहिए। क्रिएटिव इनवॉयसिंग और पेमेंट मॉडल अपनाकर स्टार्टअप संस्थापक बैंक में पड़ा पैसा खर्च करने के बजाय ग्राहकों से मिले पैसे का बेहतर इस्तेमाल कर सकते हैं। उन्हें फंडिंग के वैकल्पिक स्रोतों पर भी विचार करना चाहिए, जैसे कर्ज या रेवेन्यू आधारित फाइनेंसिंग।”

फंडिंग के अन्य स्रोत

उत्तमचंदानी के अनुसार, यहां एक गैप हमेशा रहेगा। वे कहते हैं, मान लीजिए मेरे पास 100 रुपये की वेल्थ है। इसमें से 10 रुपये मैंने स्टार्टअप में निवेश के लिए रखे हैं, यह मेरा रिस्क कैपिटल है। यानी ये 10 रुपये मुझे वापस न मिले तो भी मेरी जीवन शैली पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। लेकिन इस रिस्क कैपिटल पर मुझे 3-4 गुना रिटर्न की उम्मीद भी होगी। दूसरी तरफ, कुछ स्टार्टअप ऐसे होते हैं कि उनमें प्रॉफिट तो मिल सकता है लेकिन मल्टीपल ग्रोथ नहीं मिलेगी। कंसल्टिंग या एचआर फर्म, सोलर जैसे बिजनेस में 10 से 15% मार्जिन मिल जाता है, लेकिन रिटर्न आगे भी उतना ही रहेगा। इसलिए रिस्क कैपिटल वाला निवेशक ऐसे स्टार्टअप में पैसा नहीं लगाएगा।

वे बताते हैं, ऐसे स्टार्टअप को पहले फंडिंग के लिए इनक्यूबेटर के पास जाना चाहिए, जहां से उन्हें ग्रांट मिल सकती है। उसके बाद एमएसएमई स्कीम में आवेदन करना चाहिए। बहुत से स्टार्टअप एमएसएमई के रूप में क्वालिफाई तो करते हैं लेकिन वे उसका सर्टिफिकेट भी नहीं लेते। इस अवस्था में आने तक वे 75 लाख से एक करोड़ रुपये तक फंड जुटा चुके होते हैं। इस पूंजी से बिजनेस को सस्टेनेबल बनाने के बाद उन्हें बैंक और एनबीएफसी तथा परिजनों की मदद लेनी चाहिए।

विशेषज्ञ इस बदलाव को स्टार्टअप ईकोसिस्टम के लिए अच्छा मान रहे हैं। उपेक्खा के नायर के अनुसार, पॉजिटिव यूनिट इकोनॉमिक्स के साथ टिकाऊ ग्रोथ और मुनाफे का ट्रेंड पूरे स्टार्टअप ईकोसिस्टम के लिए बेहतर है। इससे सभी पक्षों को दीर्घकालिक वैल्यू का फायदा मिलेगा।