एस.के. सिंह, नई दिल्ली। हाल ही खबर आई कि सरकार अगले साल से न्यूनतम वेतन यानी मिनिमम वेज की जगह लिविंग वेज तय कर सकती है। इसमें अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की भी मदद ली जाएगी। भारत में न्यूनतम वेतन तय करने का कानून 1948 में और फॉर्मूला 1957 में बना था। आज भी उसी छह दशक पुराने फॉर्मूले के आधार पर न्यूनतम वेतन तय किया जाता है। विशेषज्ञों का कहना है कि इन छह दशकों में लोगों का रहन-सहन समेत पूरी दुनिया बदल गई है। इसलिए वेतन तय करने का फॉर्मूला बदला जाना चाहिए ताकि वह आज की जरूरतों के मुताबिक हो।

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वेज पॉलिसी पर फरवरी 2024 में आईएलओ की रिपोर्ट आई। उसमें कहा गया है कि लिविंग वेज का मतलब काम के सामान्य घंटों (ओवरटाइम को छोड़ कर) के दौरान मिलने वाला वह वेतन है जिससे कर्मचारी और उसका परिवार सम्मानजनक जिंदगी जी सके। जिनेवा में 4 से 14 मार्च तक आईएलओ गवर्निंग बॉडी की 350वीं बैठक में इस पर सहमति भी बनी।

10 साल में दोगुना से ज्यादा हुआ न्यूनतम वेतन

वर्ष 1988 में श्रम मंत्रियों के सम्मेलन में वेतन को औद्योगिक कर्मचारियों की महंगाई दर से जोड़ने के प्रस्ताव को मंजूरी मिली। तब से न्यूनतम वेतन में बेसिक और वैरिएबल महंगाई भत्ता (वीडीए) शामिल होता है। भत्ता उपभोक्ता मूल्य सूचकांक से जुड़ा होता है। वीडीए हर साल 1 अप्रैल और 1 अक्टूबर को संशोधित किया जाता है। न्यूनतम वेतन शहरों के हिसाब से अलग है। इसके लिए शहरों को ए, बी और सी, तीन क्षेत्रों में बांटा गया है। ए क्षेत्र में दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, बेंगलुरू समेत 17 शहर हैं। बी क्षेत्र में 87 शहरों को रखा गया है। सूची से बाहर सभी शहर सी क्षेत्र में आते हैं।

वीडीए और बेसिक समेत न्यूनतम वेतन तय करने के लिए श्रमिकों को भी चार श्रेणी में बांटा गया है- अकुशल, अर्ध-कुशल, कुशल और उच्च कौशल वाले। केंद्र सरकार इन श्रेणियों के लिए कृषि, खनन, कंस्ट्रक्शन, वेयरहाउस, बंदरगाह, सफाई, आदि क्षेत्रों के लिए न्यूनतम वेतन तय करती है।

बीते 10 वर्षों में न्यूनतम वेतन करीब 2.3 गुना बढ़ा है। मुख्य श्रम आयुक्त (केंद्रीय) की अधिसूचना के मुताबिक 1 अप्रैल 2024 को कृषि में अकुशल श्रमिकों का दैनिक न्यूनतम वेतन ए, बी और सी शहरों में क्रमशः 497 रुपये, 454 रुपये और 449 रुपये निर्धारित किया गया है। इन शहरों में उच्च कौशल वालों का न्यूनतम वेतन क्रमशः 652 रुपये, 607 रुपये और 542 रुपये है। कंस्ट्रक्शन में अकुशल श्रमिकों का न्यूनतम वेतन ए, बी और सी शहरों में क्रमशः 778 रुपये, 651 रुपये और 522 रुपये है। उच्च कौशल वालों के लिए यह क्रमशः 1028 रुपये, 948 रुपये और 862 रुपये है।

तुलनात्मक रूप से देखें तो 1 अप्रैल 2014 को कृषि में अकुशल श्रमिकों का न्यूनतम वेतन ए, बी और सी श्रेणी के शहरों में क्रमशः 215 रुपये, 195 रुपये और 193 रुपये था। उच्च कौशल वालों का न्यूनतम वेतन क्रमशः 283 रुपये, 262 रुपये और 235 रुपये था। कंस्ट्रक्शन में अकुशल श्रमिकों का न्यूनतम वेतन ए, बी और सी शहरों में क्रमशः 329 रुपये, 273 रुपये और 220 रुपये था। उच्च कौशल वालों के लिए यह क्रमशः 435 रुपये, 400 रुपये और 363 रुपये था।

भारत में न्यूनतम वेतन की शुरुआत

भारत में न्यूनतम वेतन की अवधारणा 1920 में के.जी.आर. चौधरी नाम के अर्थशास्त्री लेकर आए थे। उन्होंने हर इंडस्ट्री में न्यूनतम वेतन तय करने के लिए अलग बोर्ड गठित करने का प्रस्ताव दिया था। श्रम के साथ घर, सामाजिक परिस्थितियों और रोजगार पर विचार के लिए स्थायी श्रम समिति और भारतीय मजदूर संसद की सिफारिश पर 1943 में एक श्रम जांच समिति (लेबर इन्वेस्टिगेशन कमेटी) बनी। सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली में 11 अप्रैल 1946 को न्यूनतम वेतन बिल पेश किया गया, लेकिन इसे पारित करने में देरी हुई। अंततः न्यूनतम वेतन कानून 15 मार्च 1948 को अमल में आया।

श्रमिकों के लिए काम करने वाली संस्था वर्किंग पीपुल्स चार्टर के राष्ट्रीय संयोजक चंदन कुमार कहते हैं, “1948 के कानून में न्यूनतम वेतन निर्धारण का तरीका आवश्यकता आधारित था। पहली बार उसका फॉर्मूला 1957 में 15वीं इंडियन लेबर कॉन्फ्रेंस यानी भारतीय मजदूर संसद में तय किया गया।” इसकी आखिरी बैठक जुलाई 2015 में हुई थी।

सेंट्रल एडवाइजरी काउंसिल ने नवंबर 1948 में अपनी पहली बैठक में त्रिपक्षीय समिति बनाई। इसका नाम दिया गया कमेटी ऑन फेयर वेजेज। इसे देश में वेतन का ढांचा बनाने की जिम्मेदारी दी गई। इसमें सरकार के अलावा निजी नियोक्ता और कर्मचारी प्रतिनिधि भी थे। इस समिति ने वेतन के तीन स्तर परिभाषित किए- लिविंग वेज, फेयर वेज और मिनिमम वेज। समिति के अनुसार लिविंग वेज और मिनिमम वेज के बीच एक फेयर वेज होना चाहिए।

लिविंग, फेयर और मिनिमम वेज में अंतर

लिविंग वेज वेतन का सबसे ऊंचा स्तर है। कमेटी ऑन फेयर वेजेज के अनुसार, इसमें रोटी, कपड़ा और मकान की बुनियादी जरूरत के साथ बच्चों की शिक्षा, अच्छी सेहत, अन्य सामाजिक जरूरतों और आड़े वक्त के लिए पर्याप्त धनराशि शामिल है। लेकिन समिति ने कहा कि लिविंग वेज तय करते समय राष्ट्रीय आय और इंडस्ट्री की वेतन देने की क्षमता को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। इसलिए लिविंग वेज अंतिम लक्ष्य होना चाहिए।

यूके की यूनिवर्सिटी ऑफ बाथ में विजिटिंग प्रोफेसर डॉ. संतोष मेहरोत्रा कहते हैं, “जाहिर है कि लिविंग वेज मिनिमम वेज से ज्यादा ही होगा। लेकिन यह कितना होगा यह कहना मुश्किल है। बेहतर होता कि सरकार कोई ठोस योजना लेकर आती।”

चंदन कुमार कहते हैं, “लिविंग वेज डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स में है। इसे काफी हद तक आकांक्षी कहा जा सकता है कि जैसे-जैसे वक्त बदलेगा, हम न्यूनतम वेतन से लिविंग वेज की तरफ जाएंगे। लेकिन जब तक वेतन तय करने के मानक और उसकी प्रक्रिया नहीं बदलेगी, तब तक हम वास्तविक लिविंग वेज तक नहीं पहुंच सकते।”

फेयर वेज के बारे में समिति का कहना था- वेतन का स्तर ऐसा हो कि उत्पादन के साथ कार्य क्षमता को भी बनाए रखे। इसलिए वेतन देने की इंडस्ट्री की क्षमता का आकलन वेतन बोर्ड करे। हर राज्य में अलग बोर्ड हो। इसके अलावा हर इंडस्ट्री के लिए अलग बोर्ड हो। इन सबके ऊपर सेंट्रल अपीलेट बोर्ड हो। समिति के अनुसार, फेयर वेज श्रमिक की उत्पादकता और प्रचलित वेतन दर से जुड़ा हो। इन सिफारिशों के आधार पर अगस्त 1950 में संसद में फेयर वेजेज बिल लाया गया, लेकिन वह पारित न हो सका।

मिनिमम वेज के बारे में समिति की राय थी कि यह सिर्फ जीवित रहने के लिए न हो, बल्कि श्रमिक की कार्य क्षमता भी बरकरार रहे। इसलिए मिनिमम वेज तय करने में शिक्षा, चिकित्सा तथा अन्य जरूरी सेवाओं को भी शामिल किया जाना चाहिए।

न्यूनतम वेतन कानून का एक महत्वपूर्ण भाग अनुसूचित रोजगार सूची (शेड्यूल्ड एंप्लॉयमेंट लिस्ट) है। सरकार इस सूची में जो भी सेक्टर जोड़ती है उसका न्यूनतम वेतन निर्धारण करती है। चंदन कहते हैं, “ज्यादातर राज्यों में आज भी घरेलू मजदूर इस सूची का हिस्सा नहीं हैं, इसलिए सरकार उनका न्यूनतम वेतन तय नहीं करती है। इसका दूसरा मतलब यह है कि ये लोग श्रमिक की श्रेणी में नहीं आते। यही स्थिति नए जमाने के गिग वर्कर्स की है।” अगर किसी खास श्रेणी के कर्मचारियों का न्यूनतम वेतन तय करना है तो पहला कदम उसे अनुसूचित रोजगार सूची में शामिल करना है।

न्यूनतम वेतन की जरूरत क्यों

मिनिमम वेजेज एक्ट रिपोर्ट 2019 में कहा गया है, रोजगार मांगने का उद्देश्य वेतन हासिल करना है ताकि व्यक्ति एक सम्मानित जीवन जी सके। हर श्रमिक को उचित वेतन दिलाना सरकार का कर्तव्य है ताकि भूख और गरीबी न रहे, मानव संसाधनों का विकास हो और सामाजिक न्याय सुनिश्चित हो, जिसके बिना कानून-व्यवस्था को खतरा हो सकता है। संविधान के अनुसार एक आर्थिक व्यवस्था बनाना राज्य (देश) की जिम्मेदारी है जिसमें हर नागरिक को रोजगार और ‘उचित वेतन’ मिले। श्रम और रोजगार मंत्रालय की 2022-23 की सालाना रिपोर्ट में न्यूनतम वेतन कानून 1948 की जरूरत बताते हुए कहा गया है, “कोई भी नियोक्ता किसी समझौते के तहत इससे कम वेतन नहीं दे सकता है। इस कानून के प्रावधान महिला-पुरुष में भेद नहीं करते।”

सुप्रीम कोर्ट का फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने कर्मचारी बनाम रेप्टाकोस ब्रेट एंड कंपनी मामले में 1992 में अपने फैसले में न्यूनतम वेतन तय करने के मानकों को सही माना। साथ ही कहा कि सामाजिक-आर्थिक पहलू को देखते हुए ये मानक पर्याप्त नहीं हैं। उसने कुछ और कंपोनेंट शामिल करने की बात कही। इनमें बच्चों की शिक्षा, चिकित्सा की जरूरत, न्यूनतम मनोरंजन और शादी एवं बुढ़ापे की जरूरतें शामिल हैं। कोर्ट ने यह भी कहा कि इन पर होने वाला खर्च कुल न्यूनतम वेतन का 25 प्रतिशत माना जाए।

सुप्रीम कोर्ट ने न्यूनतम वेतन को श्रमिकों का कानूनी अधिकार माना है। क्राउन एल्युमिनियम वर्क्स बनाम कर्मचारी मामले में उसमें 1958 में निर्णय दिया कि अगर कोई इंडस्ट्री अपने कर्मचारियों को न्यूनतम वेतन नहीं दे सकती है तो उसे बने रहने का अधिकार नहीं है। पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स बनाम केंद्र सरकार (1982) में उसने कहा कि न्यूनतम वेतन से कम पैसा देना बंधुआ (फोर्स्ड) मजदूरी है। हालांकि यह भी सच है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला आज तक पूरी तरह लागू नहीं हो सका है।

नेशनल फ्लोर लेवल मिनिमम वेज

मिनिमम वेजेज एक्ट रिपोर्ट के अनुसार, विभिन्न राज्यों के वेतन ढांचे में एकरूपता नहीं है। कुछ राज्य बेसिक और डीए मिलाकर कंसोलिडेटेड वेतन तय करते हैं तो कुछ डीए को अलग कंपोनेंट के तौर पर रखते हैं। राज्यों के न्यूनतम वेतन में भारी असमानता को कम करने तथा एक यूनिफॉर्म वेतन ढांचा बनाने के लिए नेशनल फ्लोर लेवल मिनिमम वेज की अवधारणा लाई गई। वर्ष 1991 में गठित नेशनल कमीशन ऑन रूरल लेबर की सिफारिश के आधार पर इसे बनाया गया। सरकार ने 1996 में नेशनल फ्लोर लेवल मिनिमम वेज लागू किया और उस समय इसे 35 रुपये प्रतिदिन तय किया गया। उससे पहले अक्टूबर 1990 में न्यूनतम वेतन 20 रुपये तय किया गया था। हालांकि नेशनल फ्लोर लेवल मिनिमम वेज वैधानिक बाध्यता नहीं है।

न्यूनतम वेतन तय करने के तरीके में बदलाव जरूरी

राष्ट्रीय न्यूनतम वेतन तय करने के तरीके पर श्रम एवं रोजगार मंत्रालय की विशेषज्ञ समिति ने जनवरी 2019 में रिपोर्ट दी थी। उसमें कहा गया है, “इंडियन लेबर कॉन्फ्रेंस जैसे त्रिपक्षीय फोरम, विभिन्न समितियों और आयोग ने न्यूनतम वेतन नीति को आकार देने में अहम भूमिका निभाई है। इससे बहुत कुछ हासिल भी हुआ है। लेकिन सम्मानजनक कार्य और समावेशी विकास हासिल करने के लिए कुछ बातों को प्राथमिकता से देखना जरूरी है। इनमें कम वेतन, वेतन में असमानता, लैंगिक भेदभाव शामिल हैं।”

रिपोर्ट के अनुसार, भारत की वेतन नीति को अधिक प्रभावी बनाने के लिए अगस्त 2017 में सरकार संसद में वेतन संहिता विधेयक लेकर आई। पेमेंट ऑफ वेजेज एक्ट 1936, मिनिमम वेजेज एक्ट 1948, पेमेंट ऑफ बोनस एक्ट 1965 और इक्वल रेमुनरेशन एक्ट 1976 को मिला कर वेतन संहिता तैयार की गई है। इसे 8 अगस्त 2019 को नोटिफाई किया गया था, पर इसके प्रावधान अभी लागू नहीं हुए हैं।

वेतन संहिता विधेयक के प्रावधानों के अनुरूप श्रम एवं रोजगार मंत्रालय ने 17 जनवरी 2018 को एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया। इसके अध्यक्ष नोएडा स्थित वीवी गिरि नेशनल लेबर इंस्टीट्यूट के डॉ अनूप सत्पथी थे। इसे राष्ट्रीय न्यूनतम वेतन तय करने का फॉर्मूला बनाने की जिम्मेदारी दी गई।

सत्पथी समिति की प्रमुख सिफारिशें

  • हर श्रमिक के परिवार में तीन की जगह औसतन 3.6 सदस्य।
  • फूड बास्केट में सिर्फ कैलोरी की जगह कैलोरी, प्रोटीन और वसा की गणना।
  • प्रति वयस्क रोजाना 2400 कैलोरी, 50 ग्राम प्रोटीन और 30 ग्राम वसा।
  • कपड़ा, ईंधन, किराया, शिक्षा, चिकित्सा, ट्रांसपोर्ट, जूता-चप्पल जैसे जरूरी अखाद्य वस्तुओं का खर्च।
  • जुलाई 2018 में राष्ट्रीय न्यूनतम वेतन 375 रुपये प्रति दिन यानी 9750 रुपये प्रति माह। शहरी कामगारों के लिए अलग से 55 रुपये रोजाना (1430 रुपये प्रति माह) घर किराया भत्ता।
  • न्यूनतम वेतन को हर छह महीने में खुदरा महंगाई के हिसाब से संशोधित करना। भविष्य में संशोधन को प्रोडक्टिविटी से जोड़ने का तरीका निकालना।

कैलोरी के आधार पर न्यूनतम वेतन

न्यूनतम वेतन तय करने में सरकार का जो फूड बास्केट है, वह 1929 का है। उसे डॉ. आयक्रॉयड (Wallace Ruddell Aykroyd) ने बनाया था। इसमें सिर्फ तीन लोगों का खर्च जोड़ा जाता है। डॉ. आयक्रॉयड के फॉर्मूले में परिवार के तीन यूनिट (सदस्य) इस प्रकार हैं - कमाने वाला एक यूनिट, पत्नी 0.8 यूनिट और दो बच्चे 1.2 यूनिट। माना जाता है कि प्रति परिवार हर साल 72 गज कपड़े की जरूरत में गर्म कपड़े शामिल नहीं हैं। इसलिए यह फॉर्मूला ठंडे इलाकों के लिए मुफीद नहीं।

चंदन कहते हैं, भारत जैसे देश में अनेक परिवारों में बच्चों के अलावा वृद्ध माता-पिता भी कमाने वाले पर आश्रित होते हैं। वहां तीन लोगों का खर्च जोड़ना कहीं से उचित नहीं लगता है। वे कहते हैं, “हम आज भी 1929 और 1957 के फॉर्मूले पर वेतन निर्धारित कर रहे हैं। इस दौरान पूरी दुनिया बदल गई है। इसलिए वेतन निर्धारण का फॉर्मूला भी बदलने की जरूरत है।”

डॉ. वॉलेस आयक्रॉयड पहले न्यूट्रिशनिस्ट थे जिन्हें जिनेवा स्थित लीग ऑफ नेशंस ने 1931 में स्वास्थ्य सचिवालय में नियुक्त किया था। भारत में 1935 में उन्हें सरकारी पोषण अनुसंधान केंद्र का निदेशक बनाया गया था। वे यूएन के खाद्य एवं कृषि संगठन में पोषण विभाग के पहले डायरेक्टर भी थे।

15वीं मजदूर संसद में प्रति वयस्क रोजाना 2700 कैलोरी की जरूरत डॉ. आयक्रॉयड की सिफारिश के अनुसार ही थी। 1957 से पहले 1940 में टेक्सटाइल लेबर इनक्वायरी कमेटी और 1948 में यूनाइटेड प्रोविंसेज लेबर इन्क्वायरी कमेटी ने आवश्यकता आधारित न्यूनतम वेतन निर्धारित करने की कोशिश की थी। बॉम्बे टेक्सटाइल लेबर इनक्वायरी कमेटी ने भोजन के लिए प्रति वयस्क 2600 कैलोरी को आधार माना था।

चुनौतियांः न्यूनतम वेतन तो तय, लेकिन पूरी तरह अमल नहीं

न्यूनतम वेतन निर्धारण में तो अनेक प्रयास नजर आते हैं, लेकिन विशेषज्ञों के अनुसार इसके अमल में कमी साफ झलकती है। मेहरोत्रा के अनुसार, “अभी तक न्यूनतम वेतन ही हर जगह लागू नहीं हो सका है। कम से कम मनरेगा में ही सरकार न्यूनतम वेतन लागू कर दे।” गौरतलब है कि हाल ही सरकार ने वित्त वर्ष 2024-25 के लिए मनरेगा की दरों में 8 से 10 प्रतिशत की वृद्धि की है। हरियाणा में सबसे अधिक 374 रुपये की दर है।

दरअसल, वेतन रोजगार की क्वालिटी पर निर्भर करता है। यह बात अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) और इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन डेवलपमेंट (आईएचडी) की हाल की ‘इंडिया एम्पलॉयमेंट रिपोर्ट 2024’ से भी जाहिर होती है। इसके मुताबिक, वर्ष 2005 से 2022 तक रोजगार की परिस्थितियां बेहतर हुईं, लेकिन उसके बाद यह ट्रेंड रुक गया। खास कर कोविड महामारी के बाद स्थिति खराब हुई। मामूली सुधार के बावजूद रोजगार की परिस्थितियां अच्छी नहीं हैं।

रिपोर्ट के अनुसार, मैन्युफैक्चरिंग में रोजगार का हिस्सा 12 से 14 प्रतिशत के आसपास स्थिर है। ज्यादातर रोजगार अनौपचारिक क्षेत्र में है और उनकी क्वालिटी भी अच्छी नहीं है। करीब 82% वर्कफोर्स अनौपचारिक क्षेत्र में है और लगभग 90% लोगों का रोजगार अनौपचारिक है।

इसमें कहा गया है कि कैजुअल श्रमिकों का वेतन 2012 से 2022 के दौरान मामूली बढ़ा। नियमित कर्मचारियों का वास्तविक वेतन या तो स्थिर रहा या कम हुआ। स्वरोजगार वालों की वास्तविक आय भी 2019 के बाद घटी है। कृषि में काम करने वाले 62% अकुशल कैजुअल श्रमिकों और कंस्ट्रक्शन में ऐसे 70% श्रमिकों को 2022 में न्यूनतम वेतन भी नहीं मिला। वर्ष 2000 से 2012 तक भारत में रोजगार सालाना 1.6 प्रतिशत बढ़ा जबकि इस दौरान ग्रॉस वैल्यू ऐडेड 6.2% की दर से बढ़ा। वर्ष 2012 से 2019 तक ग्रॉस वैल्यू ऐडेड बढ़ने की दर 6.7% थी लेकिन इस दौरान रोजगार वृद्धि सालाना 0.01% थी।

रिपोर्ट के मुताबिक, मशीनीकरण बढ़ने से उत्पादन की प्रक्रिया अधिक पूंजी सघन हो गई है। वर्ष 2000 से 2019 के दौरान रोजगार में बदलाव हुआ और लोग कम उत्पादकता वाले कृषि क्षेत्र से अधिक उत्पादकता वाले गैर-कृषि क्षेत्रों में आए। लोग कंस्ट्रक्शन और सर्विस सेक्टर में गए। लेकिन यह बदलाव 2019 आते-आते धीमा पड़ने लगा।

वर्ष 2019 से 2022 तक रोजगार में सालाना 3% और जीवीए में 3.5% की वृद्धि हुई। इसे महामारी के बाद रिकवरी से जोड़कर देखा जा सकता है। एक और महत्वपूर्ण बात है कि मैन्युफैक्चरिंग में जो अतिरिक्त रोजगार पैदा हुए उनमें ज्यादातर नियमित और स्वरोजगार थे। उनमें उत्पादकता और आमदनी कंस्ट्रक्शन, कृषि तथा कुछ सर्विसेज से ज्यादा थी। रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2022 में कृषि में काम करने वाले 40.8% नियमित और 51.9% कैजुअल श्रमिकों को न्यूनतम वेतन नहीं मिला। कंस्ट्रक्शन सेक्टर में 39.3% नियमित और 69.5% कैजुअल श्रमिकों को न्यूनतम वेतन नहीं मिला।

आईएलओ का कहना है कि भारत का श्रम बाजार काफी हद तक असंगठित और बंटा हुआ है। संगठित क्षेत्र में रोजगार बढ़ा है लेकिन इस सेक्टर में भी अनेक नौकरियां कैजुअल प्रकृति की ही हैं। चंदन कहते हैं, हमें नजरिया बदलना पड़ेगा। आज के गिग कर्मचारी जिन बड़ी कंपनियों में काम करते हैं, उनका प्रॉफिट तो अरबों डॉलर में है लेकिन कर्मचारियों का वेतन 20000 रुपये भी नहीं होता। इसके अलावा वे बहुत सी सुविधाओं से भी महरूम रहते हैं। वेतन को कंपनी के प्रॉफिट और प्रोडक्शन सिस्टम से जोड़ना जरूरी है। तभी वेतन तय करने का कोई मतलब होगा अन्यथा असमानता का स्तर बढ़ता जाएगा।